जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:
आपने भारत के सबसे बड़े धार्मिक मेले, महाकुंभ के बारे में सुना ही होगा, लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक समय ऐसा भी था जब इस मेले में जाने के लिए श्रद्धालुओं को टैक्स चुकाना पड़ता था? जी हां, आपने सही सुना! आज हम आपको बताएंगे इस ऐतिहासिक रहस्य के बारे में। तो इस दिलचस्प जानकारी के लिए ये लेख अंत तक पड़े।
कुंभ मेला, हर 12 साल में एक बार, प्रयागराज में आयोजित होता है। लाखों श्रद्धालु गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर आकर स्नान करते हैं। यह मेला सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन इस मेले से जुड़ी एक दिलचस्प बात है – एक समय था जब कुंभ मेले में आने के लिए श्रद्धालुओं को टैक्स चुकाना पड़ता था!
क्या आप जानते हैं कि अकबर के शासनकाल में कुंभ मेले में जाने के लिए श्रद्धालुओं से टैक्स लिया जाता था? जी हां, इसे ‘कुंभ टैक्स’ कहा जाता था, जिसे मेले में प्रवेश करने से पहले भरना पड़ता था। हालांकि, अकबर ने बाद में इसे हटा लिया था, लेकिन यह टैक्स फिर से अंग्रेजों के शासन में लागू हो गया।
1822 में अंग्रेजों ने कुंभ मेले में आने वाले हर यात्री से टैक्स लिया। एस.के. दुबे की किताब ‘कुंभ सिटी प्रयाग’ के अनुसार, अंग्रेजों ने उस समय श्रद्धालुओं से सवा रुपए का लगान वसूला था। उस समय, 1 रुपया पूरे महीने का भोजन खर्च उठा सकता था। ऐसे में सवा रुपए का टैक्स श्रद्धालुओं के लिए भारी पड़ गया था। इस टैक्स के कारण, उस साल कुंभ मेले में सन्नाटा पसरा हुआ था और श्रद्धालु कम संख्या में आए थे।
फिर, 1840 में अंग्रेजी गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने तीर्थ यात्रियों से वसूले जाने वाले इस पिलग्रिमेज टैक्स को खत्म कर दिया। लेकिन, कुंभ मेले में काम करने वाले कारोबारियों से टैक्स वसूला जाता रहा। इस टैक्स का असर काफी गहरा था, लेकिन फिर भी कुंभ का महत्व कम नहीं हुआ।
आजादी के बाद, 1954 में भारत में पहला कुंभ मेला प्रयागराज में हुआ। तब तक इस मेले में आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या करोड़ों में पहुंच चुकी थी। आज कुंभ मेला भारत का सबसे बड़ा धार्मिक मेला बन चुका है, जिसमें लाखों लोग पवित्र स्नान करने आते हैं। आज भी, सरकार द्वारा इस मेले के आयोजन के लिए व्यापक तैयारियां की जाती हैं ताकि श्रद्धालु बिना किसी परेशानी के स्नान कर सकें। यह मेला आज भी श्रद्धा, विश्वास और एकता का प्रतीक बना हुआ है। लेकिन उस समय के टैक्स सिस्टम की कहानी आज भी इतिहास के पन्नों में जिंदा है।
बता दें, एक समय था जब श्रद्धालुओं को इस महाकुंभ में आने के लिए टैक्स चुकाना पड़ता था, लेकिन आज यह मेला श्रद्धा और विश्वास का सबसे बड़ा प्रतीक बन चुका है।