दलाई लामा का 90वां जन्मोत्सव: धर्मशाला में वैश्विक श्रद्धालुओं का उमड़ा सैलाब, ओबामा-बुश-पीएम मोदी ने दी शुभकामनाएं!

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जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:

हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रविवार, 6 जुलाई का दिन इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में दर्ज हो गया। इस दिन पूरी दुनिया से हज़ारों अनुयायी, श्रद्धालु, बौद्ध भिक्षु और तिब्बती समुदाय के लोग त्सुगलाखंग मंदिर परिसर में एकत्र हुए, जहां तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा का 90वां जन्मदिन बड़े धूमधाम और अध्यात्मिक उल्लास के साथ मनाया गया। कार्यक्रम में पारंपरिक तिब्बती नृत्य, संगीत और रंग-बिरंगी सांस्कृतिक प्रस्तुतियां हुईं। इस समारोह की भव्यता और अध्यात्मिक ऊर्जा देखने लायक थी।

इस आयोजन में भारत सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू, राजीव रंजन, अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, सिक्किम के धार्मिक मंत्री सोनम सहित कई गणमान्य लोग उपस्थित रहे। हॉलीवुड अभिनेता रिचर्ड गेरे, जो दलाई लामा के घनिष्ठ मित्र और वैश्विक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, उन्होंने भी इस ऐतिहासिक अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दलाई लामा को जन्मदिन की बधाई देते हुए लिखा, “1.4 अरब भारतीयों की ओर से मैं परम पूज्य दलाई लामा को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं देता हूं। वह प्रेम, करुणा, धैर्य और नैतिक अनुशासन के प्रतीक हैं। ईश्वर उन्हें उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु प्रदान करे।”

इस बीच समारोह में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपतियों बराक ओबामा, बिल क्लिंटन और जॉर्ज बुश के वीडियो संदेश भी चलाए गए। इन संदेशों में उन्होंने दलाई लामा को शांति, सहिष्णुता और करुणा का प्रतीक बताते हुए उन्हें जन्मदिन की बधाई दी।

जन्मदिन से एक दिन पहले ही शनिवार को दलाई लामा ने अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए कहा था कि “मेरा उद्देश्य बौद्ध धर्म और तिब्बती समाज की सेवा करना है। मैं चाहता हूं कि मैं 130 वर्ष या उससे भी अधिक जीवित रहूं, ताकि मैं इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकूं।” उन्होंने बताया कि उनका जीवन बचपन से ही करुणा के बोधिसत्व अवलोकितेश्वर से गहराई से जुड़ा रहा है। वे हर दिन की शुरुआत उन्हीं के ध्यान और आशीर्वाद से करते हैं, जिससे उन्हें अद्भुत मानसिक शक्ति और धैर्य प्राप्त होता है।

बचपन में ही पहचान ली गई थी दलाई लामा की महानता

बता दें, दलाई लामा का वास्तविक नाम ल्हामो धोन्डुप था। उनका जन्म 6 जुलाई 1935 को तिब्बत के ताक्सर गांव (अमदो क्षेत्र) में हुआ। मात्र दो वर्ष की आयु में ही उन्हें 13वें दलाई लामा के पुनर्जन्म के रूप में मान्यता दी गई। 1939 में उन्हें ल्हासा लाया गया और 22 फरवरी 1940 को पारंपरिक विधियों के साथ तिब्बत का सर्वोच्च धार्मिक और राजनीतिक नेता घोषित किया गया। मात्र छह वर्ष की उम्र में ही उन्होंने बौद्ध दर्शन, तंत्र, संस्कृत, तर्क और अन्य शास्त्रों की औपचारिक शिक्षा प्रारंभ कर दी थी।

1950 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा करना शुरू किया, तब मात्र 15 वर्ष की आयु में दलाई लामा को तिब्बत की राजनीतिक जिम्मेदारी संभालनी पड़ी। 1959 में जब तिब्बत में चीन के विरुद्ध राष्ट्रीय विद्रोह को क्रूरता से कुचला गया, तब दलाई लामा को 80,000 से अधिक तिब्बती शरणार्थियों के साथ भारत आना पड़ा। भारत सरकार ने उन्हें धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में शरण दी। यहीं से उन्होंने तिब्बती निर्वासित सरकार की स्थापना की और तभी से दलाई लामा भारत को न केवल अपनी शरणस्थली, बल्कि अपने “गुरु का देश” मानते हैं। वे कहते हैं, “मेरे शरीर का पोषण भारत के भोजन से हुआ और मेरा मन प्राचीन भारतीय ज्ञान से प्रेरित है।”

दलाई लामा को 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने अहिंसा, करुणा और मानवीय मूल्यों का प्रचार करते हुए विश्व में नफरत व हिंसा के बीच एक नई उम्मीद जगाई। वर्तमान में वे बौद्ध धर्म, योग, ध्यान और मन की प्रकृति पर वैश्विक मंचों से शिक्षा देकर मानसिक स्वास्थ्य व भावनात्मक संतुलन को नई दिशा दे रहे हैं।

90 वर्ष की उम्र में भी दलाई लामा की सक्रियता और मानसिक स्थिरता सभी को हैरान करती है। वह इसे अपनी सादा दिनचर्या, सीमित शाकाहारी आहार और गहन माइंडफुलनेस का परिणाम बताते हैं। उनका दिन सुबह 3 बजे शुरू होता है। प्रार्थना, ध्यान और हल्की सैर के बाद 5:30 बजे वह दलिया, साम्पा, ब्रेड और चाय का हल्का नाश्ता करते हैं। फिर 6 से 9 तक ध्यान और मंत्र जाप।

सुबह 9 बजे के बाद वे बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। दोपहर 11:30 बजे भोजन और फिर दोपहर में कार्यालय कार्य, भिक्षुओं व अनुयायियों से भेंट होती है। वे रात का भोजन नहीं करते। शाम 5 बजे केवल चाय लेते हैं और फिर ध्यान कर 7 बजे विश्राम के लिए चले जाते हैं। उनके अनुसार, “हर पल को जागरूकता के साथ जीना ही सच्चा ध्यान है। यही संतुलन और मानसिक शांति का रहस्य है।”

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