रील्स एडिक्शन: स्मार्टफोन की दुनिया में ‘डोपामाइन ड्रेन’, युवाओं को बना रहा मेंटली और फिजिकली बीमार

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जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:

आज के समय में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, खासतौर पर इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर मौजूद “रील्स” जैसी शॉर्ट वीडियो कंटेंट ने युवाओं से लेकर बुजुर्गों तक सभी की दिनचर्या पर कब्जा जमा लिया है। चाहे घर का ड्रॉइंग रूम हो या पब्लिक प्लेस—हर तरफ एक चीज कॉमन है: मोबाइल स्क्रीन पर आंखें गड़ाए लोग और बैकग्राउंड में चलती तेज़ आवाजें। ये दृश्य अब सामान्य लगने लगे हैं, लेकिन इसके पीछे जो मानसिक और शारीरिक क्षरण हो रहा है, वह बेहद गंभीर है।

दरअसल, रील्स को देखने की लत डोपामाइन रश का नतीजा है। जब कोई इंसान एक शॉर्ट वीडियो देखता है, तो मस्तिष्क में डोपामाइन नाम का ‘फील-गुड हार्मोन’ रिलीज़ होता है, जो तुरंत खुशी देता है। पर ये खुशी टिकाऊ नहीं होती। इसका नतीजा ये होता है कि व्यक्ति एक के बाद एक कई रील्स देखने लगता है – एक अंतहीन सिलसिला।


फिजिकल और मेंटल हेल्थ पर सीधा असर

रील्स एडिक्शन सिर्फ समय की बर्बादी नहीं है, बल्कि यह धीरे-धीरे मानसिक थकावट (Mental Fatigue), चिड़चिड़ापन, अवसाद और एकाग्रता में कमी जैसे लक्षण पैदा करता है। कई लोगों को अब बिना कारण ही गुस्सा आना, नींद न आना, और थकावट महसूस होना आम हो चला है।

विशेषज्ञों के अनुसार, डोपामाइन का यह कृत्रिम प्रवाह शरीर के मेटाबोलिज्म को असंतुलित कर देता है, जिससे मोटापा, हार्मोनल बदलाव, डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर और यहां तक कि हृदय रोगों तक का खतरा बढ़ जाता है।


मोबाइल विजन सिंड्रोम और सुनने की क्षमता पर असर

लंबे समय तक स्क्रीन देखने से मोबाइल विजन सिंड्रोम जैसी स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं, जिसमें आंखों की सूजन, ड्रायनेस, जलन और तेज रोशनी में दिक्कत होना शामिल है। इसके अलावा, हेडफोन और तेज़ वॉल्यूम पर वीडियो देखने की आदत से सुनने की क्षमता भी प्रभावित हो रही है।

इससे जुड़े अन्य लक्षणों में सिरदर्द, नींद न आना और कभी-कभी रिंगटोन का आभास (Phantom Ringing) होना शामिल है, जबकि वास्तव में फोन बजा ही नहीं होता।


बच्चों पर सबसे ज्यादा खतरा

सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि छोटे बच्चे और किशोर भी इस डिजिटल जाल में फंस चुके हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार, मोबाइल की अत्यधिक लत के कारण 22% बच्चों में ऑटिज्म जैसे लक्षण देखे जा रहे हैं। इसके अलावा, स्मार्टफोन से दूर होने का डर (Nomophobia) अब बच्चों में सामान्य बात हो गई है।

अभिभावकों की बड़ी संख्या इस खतरे से अनजान है या फिर अनदेखा कर रही है। लगभग 90% पेरेंट्स अपने बच्चों के स्क्रीन टाइम को ट्रैक नहीं करते, जोकि भविष्य में एक बड़ी समस्या बनने वाला है।


वर्किंग क्लास और स्टूडेंट्स भी नहीं बचे

युवाओं में औसतन 5 से 6 घंटे फोन पर बिताना अब सामान्य हो चुका है। नौकरी करने वालों में 80% लोग लगभग पूरा दिन मोबाइल या लैपटॉप स्क्रीन से चिपके रहते हैं। छात्र भी पढ़ाई की जगह ‘कंटेंट कंजम्पशन’ में लगे हैं। लगातार झुकी हुई गर्दन, आंखों पर जोर और दिमागी थकावट अब इस पीढ़ी की नयी पहचान बनती जा रही है।

समाधान क्या है?

अब वक्त आ गया है कि हम सोशल मीडिया को ‘स्मार्टली’ इस्तेमाल करना सीखें।

  • स्क्रीन टाइम पर कंट्रोल करें

  • नो-फोन ज़ोन बनाएं (खाने के वक्त, सोते समय)

  • हर एक घंटे बाद स्क्रीन ब्रेक लें

  • बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिताएं

  • डिजिटल डिटॉक्स का अभ्यास करें

रील्स एडिक्शन – एक नया डिजिटल कैंसर?

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रील्स की लत डिजिटल कैंसर बनती जा रही है। फर्क बस इतना है कि इसका असर धीरे-धीरे होता है, मगर यह शरीर और दिमाग के हर हिस्से को नुकसान पहुंचाता है।

जो बीमारी नज़र नहीं आती, वह अक्सर सबसे खतरनाक होती है — और रील्स एडिक्शन उन्हीं में से एक है।

इसलिए, स्मार्टफोन का स्मार्ट यूज़ ही आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है।

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