जनतंत्र, मध्यप्रदेश, श्रुति घुरैया:
मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले के जवासिया गांव में एक ऐसी अनूठी घटना सामने आई है, जिसने मित्रता की परिभाषा को नया आयाम दिया है। यह कहानी है अंबालाल प्रजापत और उनके दिवंगत मित्र सोहनलाल जैन की, जिनकी दोस्ती करीब दो दशकों तक सत्संग, भक्ति और पारस्परिक श्रद्धा पर टिकी रही। मृत्यु के बाद भी जब मित्र की अंतिम इच्छा का सम्मान किया गया, तो यह मित्रता लोगों के लिए प्रेरणा बन गई।
करीब 20 साल पहले जवासिया में आई चाय की प्याली ने दो अनजान लोगों को जोड़ दिया था। अंबालाल प्रजापत ने बताया कि सिहोर गांव से आए सोहनलाल जैन की दुकान पास में ही थी और वो अक्सर उन्हें घर की चाय पिलाया करते थे। यहीं से बातचीत और सत्संग के सिलसिले ने गहराई पकड़ ली और यह संबंध धीरे-धीरे आत्मिक मित्रता में बदल गया।
वर्ष 2021 में जब सोहनलाल को कैंसर का पता चला, तब उन्होंने एक पत्र में अपनी अंतिम इच्छा अपने प्रिय मित्र अंबालाल को लिख भेजी थी। इस पत्र में उन्होंने साफ तौर पर लिखा था कि जब उनका देहांत हो, तो शव यात्रा में कोई आंसू न बहाए जाएं, न कोई शोक व्यक्त किया जाए, बल्कि ढोल-नगाड़ों और नृत्य के साथ उन्हें विदा किया जाए। इस भावना के पीछे उनका यह विश्वास था कि मृत्यु एक उत्सव है, जिसे डर या शोक नहीं, बल्कि श्रद्धा और उल्लास से स्वीकार किया जाना चाहिए।
30 जुलाई 2024 को जब सोहनलाल का निधन हुआ, तो गांव की गलियों में कुछ अलग नज़ारा देखने को मिला। मित्र की अंतिम इच्छा को निभाने के लिए अंबालाल ने ढोल-नगाड़ों के साथ शव यात्रा के आगे नृत्य किया। लोग हैरान थे, कुछ ने रोकने की कोशिश भी की, परंतु अंबालाल नहीं रुके। उनका कहना था, “यह सिर्फ एक इच्छा नहीं थी, यह मेरे दोस्त की आखिरी वसीयत थी।”
अंबालाल के अनुसार, उस सुबह दोनों ने खेत पर जाने से पहले एक साथ चाय पी थी। फिर कुछ घंटों बाद उनके जीवन में वह क्षण आया जब उन्हें अपने मित्र से हमेशा के लिए विदा लेनी पड़ी। आंखें नम थीं, लेकिन मन में दृढ़ता थी कि जो वादा किया है, वह निभाना है। अपने गुरु जैसे मित्र के प्रति यह श्रद्धांजलि न केवल सच्ची थी, बल्कि आज की भागदौड़ और स्वार्थ की दुनिया में एक मिसाल भी।
सोहनलाल और अंबालाल की दोस्ती महज चाय की दुकान से शुरू हुई एक जान-पहचान नहीं थी, बल्कि यह एक आध्यात्मिक बंधन में बंधा हुआ संबंध था। दोनों प्रभात फेरी, सत्संग और धार्मिक आयोजनों में हमेशा साथ रहते थे। इस गहरी मित्रता में ना कोई स्वार्थ था, ना कोई लेन-देन।
अंबालाल के बेटे राकेश के अनुसार, सोहनलाल के पत्र का उन्हें पहले कोई ज्ञान नहीं था। उनके पिता ने कभी इसका उल्लेख भी नहीं किया। लेकिन जिस दिन सोशल मीडिया पर यह पत्र वायरल हुआ और शव यात्रा का वीडियो सामने आया, तब पूरे गांव में यह चर्चा का विषय बन गया।
अब अंबालाल पहले जैसे नहीं हैं। उनका चेहरा अब भी शांत है, लेकिन आंखों में दोस्त की यादें तैरती रहती हैं। वो रोज सत्संग में जाते हैं, लेकिन कहते हैं, “अब कोई बात करने वाला नहीं बचा।” सोहनलाल के बिना उनकी साधना अधूरी सी लगती है।